लोगों की राय

कहानी संग्रह >> पत्थर पिघलने की घड़ी

पत्थर पिघलने की घड़ी

पी. लंकेश

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2146
आईएसबीएन :81-260-1839-9

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

333 पाठक हैं

प्रस्तुत है कन्नड़ कहानी संग्रह.....

Patthar Pighalane Ki Ghari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

कवि, इतिहासकार, कथाकार, नाट्य लेखक, अनुवादक, आलोचक, फिल्मकार एवं सम्पादक पी. लंकेश समकालीन भारत के अत्यन्त बहुमुखी प्रतिभावाले रचनाकारों में से एक हैं। बिरुक और मुस्संजेय कथा प्रसंग (उपन्यास), नानल्ल उमापतिय स्कॉलरशिप यात्रे (कथा-संग्रह) संक्रान्ति (नाटक) आपकी चर्चित कृतियाँ हैं। सोफ़ोक्लीज़ के नाटकों एवं बोदलेयर की कविताओं के आपके अनुवाद आधुनिक कन्नड़ साहित्य की बहुमूल्य संपदा है।

साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित कुल्लू करगुवा समया आपका चौथा कथा-संग्रह है। अस्तित्वमूलक प्रश्नों के साथ प्रभावशाली संवाद, प्रांजल भाषा एवं स्थानीय बोली के पुट के साथ मात्र एवं मानवीय स्थितियों का सूक्ष्म निरीक्षण, गहन नाटकीयता और रोचक संघात की बुद्धिमत्तापूर्ण व्याख्या आदि के कारण यह कृति कन्नड़ भारतीय साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण योगदान है।
श्री धरणेन्द्र कुरकुरी ने मूल कृति के आस्वाद को प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद में सुरक्षित रखा है। पाठकों को इस रचना द्वारामूल का आनन्द मिलेगा।


निवेदन

 


इधर कुछ वर्षों से लिखी तेरह कहानियाँ इस संग्रह में हैं। लगभग दस वर्षों से कहानी, नाटक, कविता कुछ भी लिख नहीं पाया। साढ़े तीन वर्ष पूर्व हमारे विशेष अंक के लिए एक कहानी की रचना करनी ही पड़ी। ‘लालसा’ तब लिखी गई कहानी है। मैं यह नहीं कह रहा कि यह यहाँ की श्रेष्ठ कहानी है; उसने जो घायल कर दिया, उसकी याद से बता रहा हूँ। यह घाव दर्द का है, सन्तोष का है, संभ्रम का है; एक बार रुधिर बहने लगा तो बहता ही चला गया। ‘सुभद्रा’ कहानी समाप्त करके ही दम लिया।

यहाँ मेरी इन कहानियों के बारे में ख़ुद मुझे कहने की आवश्यकता नहीं है। ‘छू लिया हो जिसने’, ‘देवी’ इत्यादि कहानियों को तब लिख नहीं पाता था; अब ‘उमापति की स्कॉलरशिप यात्रा’, ‘मैं नहीं’, ‘रोटी’ नहीं लिखता। आपसे निवेदन है कि पूर्व की तरह ही इन कहानियों में मन लगाकर स्पंदित हो जावें; अस्तु।
‘संवेदिता’ नामक अन्तिम भाग में प्रकाशित कहानियाँ दूसरों की कहानियाँ हैं। प्रिय कहानियों को पढ़ते समय की गयी टिप्पणियाँ हैं। कुतूहलवश यहाँ दी गयी हैं।

इस पुस्तक को के. रामदास के नाम समर्पित किया है। पिछले चार वर्षों से हम दोनों एक साथ हज़ारों मील भ्रमण करके चिन्तन न करते तो लगता है कि इन कहानियों के बीच मुझ में न पड़ते अंकुरित न होते।

 

-पी. लंकेश
बंगलौर

 

भूमिका

 

 

यह एक प्रकार से विचित्र बात है; उतना ही सूक्ष्म और सहज भी।
सब लोगों की तरह सावित्री में ‘अराजकता’ का बढ़ना, गिरिजा के स्वाभाविक प्रेम की क्रिया में चेलुवम्मा के विद्रोह गर्जन का मिट जाना, तिप्पण्णा को अपने हठ और धैर्य से पा लेनेवाली श्यामला का अन्त में उसका नपुंसकत्व देखकर हँसती हुई चेतना भर देना, अपनी पार्वती पर हुए अत्याचार को अपनी आँखों से देखने पर भी सुब्बण्णा बदला न लेकर चूहे जैसा जीवन बिताने पर दुःखी होना, अपने हाथों से फिसलते हुए जीवन के बारे में निंगव्वा (निर्मल का) आँसू बहाना, अपनी तृष्णा में फँसे बसवराज अपने अन्दर छुपी नीचता देखकर निर्मल मन के लिए छटपटाना, बुनियादी तौर पर अपने में छुपी कामनाओं को देखकर अपराधी की तरह सुभद्रा का चिल्लाना, धीर लड़की की तरह दिखाई देने वाली स्लटेल्ला का अपने जीवन के बारे में दुःख, अपमान, भय से तड़पना, पूरी तरह गाँव की महिला देवी के सामने चन्द्रप्पा, सिने निर्देशक नायडू का एक घटिया आदमी के रूप में सामने आना....

ये लंकेशजी के नए कहानी-संग्रह ‘पत्थर पिघलने की घड़ी’ की कहानियों में, विविध सन्दर्भ में आनेवाले कुछ पात्रों के विविध आंतरिक संघर्ष हैं। प्रत्येक कहानी में आनेवाले पात्र का माहौल, परिस्थिति भिन्न होने के कारण प्रत्येक पात्र अपने जीवन की गहराई की अराजकता को, खिन्नता को, निगूढ़ सत्य को खोल देता है। यह यहाँ की अधिकतर कहानियों में गोचर होने वाली सूक्ष्म क्रिया है। स्त्री हो, पुरुष हो, अथवा जन-समुदाय हो, इस क्रिया के द्वारा कुछ भी उपलब्ध न पानेवाले पात्र भी कहीं जमी हुई स्थिति से बाहर आकर नयी हवा के लिए छटपटाना, नयी चेतना के लिए छटपटाना, जड़त्व को उतारकर खड़ा होना—यह परिवर्तित होते माहौल में कहानीकार पात्रों के साथ पात्र बनकर अनुभव की गयी प्रमुख घटनाएँ उगती हैं। लंकेशजी के पिछले-कहानी-संग्रह तथा प्रस्तुत कहानी-संग्रह में यही बड़ा अन्तर है, इस अन्तर में सिनेमा, पत्रिका, प्रगतिरंग-दल इत्यादि कार्यकलाप के कारण हुआ बदलाव अथवा विकास कहें तो अनुचित न होगा।

इसे उदाहरण के द्वारा बताने की आवश्यकता नहीं है। ‘पत्थर पिघलने की घड़ी’ कहानी की श्यामलता में एक ‘कार्यागार’ उसके जीवन की क्रिया को गति देना; ‘ओझल’ की नायिका सावित्री को अपने जीवन का दुरंत भ्रमरा के दुरंत की तरह लगने पर भी अपने सच्चे बोध से इसका सामना करने का आत्मविश्वास जागृत होता है—ये एकाध छोटे-मोटे निदर्शन हैं। इनके अतिरिक्त और एक सूक्ष्म की ओर ध्यान देना है। यह सूक्ष्मता सुधार की ध्वनि में है अथवा अपने आपको लगा देनेवाली व्यावहारिक क्रिया में है। ‘सहपाठी’ के बसवेगौड के हृदय की गहरी वेदना को, भीतर स्वप्न को एक सामाजिक प्रक्रिया समझनेवाले तथा-नायक भगवान अन्त में हरिजन लड़के के पैर धोकर ‘पाप-मुक्त’ होने तक उसे जाता है; उसी प्रकार ‘एक किवाड़’ कहानी की चिन्नम्मा को दरवाज़ा दिलाने के लिए दौड़-धूप करनेवाला नायक अनेक झंझटों के कारण तंग आकर अन्त में क्रूर वास्तव से समझौता कर लेने की अनिवार्यता समझ लेता है। यह कहने के बदले कि सब बातें कहाँ तक सही हैं अथवा गलत हैं, यहाँ वास्तविक ‘पाप’ तथा उसे मिटाने की इच्छा प्रमुख है यह पीढ़ी दर पीढ़ी का पाप-बोध प्रायश्चित्त अथवा विषाद की परछाईं की तरह गोचर होता है। श्रेष्ठ कहानियों में एक ‘छुवा लिया हो जिसने’ कहानी में यह कड़वा सत्य स्पष्ट बिंबित हो गया है।

मेरा विचार है कि लंकेश के पिछले तीन कहानी-संग्रह की कहानियों के साथ यहाँ की कहानियों की तुलना करना अनुचित है; अथवा दोनों की तुलना करके देखने में ख़तरा ही अधिक है। ऊपर से ऐसा लगने पर कि इस संग्रह की कहानियों में तीक्ष्णता नहीं है, इन कहानियों की गहराई में लक्षित, अनुभव की गयी वेदनाएँ, द्वंद्व जीवन की तीक्ष्णता खो जाने वाले सम्बन्धों के बारे में यातना के सूक्ष्म स्पंदन इन कहानियों में हैं।
अंत में एक बात; लंकेश की रचनाएँ कहानी, उपन्यास, नाटक, पत्रिका के आलेख पढ़नेवाले मैंने एक साधारण पाठक के रूप में यहाँ की कहानियों में मुझे तंग करनेवाली बातों को प्रस्तुत किया है; अस्तु।

 

-सत्यमूर्ति आनंदुरू

 

पिपासा

 


‘‘समझ में नहीं आ रहा है कि क्या कहूँ। सबकी तरह किसी के मरने पर हाय करना, रोना नहीं हो पा रहा। मेरा रोना यदि सरोजम्मा देखती तो हँसकर कह देती, ‘‘छि: चुप हो जाइये; आप रोते हैं तो अच्छा नहीं लगता।’’ सरोजम्मा न सिर्फ़ आपकी पत्नी थीं, बल्की सहेली भी थीं। बातों से परे आप दोनों का स्नेह था। हमारे घर के सामने सूर्योदय से पहले कुहरे में, धुँधलके में, झाड़ी में, आप दोनों को आते देखकर अपने आप में हम कह लेते थे कि स्नेह हो तो ऐसा ही हो। मरने पर, असमय मौत के बारे में कहने के शब्द कहाँ ? मौत के बारे में कहने के लिए आदमी के पास रह क्या गया है ? नागराज कहता ही जा रहा था।

मैंने कहा, ‘‘बैठो।’’ तभी याद आया। कहना चाहिए था, ‘‘बैठिये।’’ क्योंकि इस नागराज को मैंने कभी भी एकवचन में सम्बोधित नहीं किया था। उसने मेरे परिवार को अच्छी तरह जाननेवाले की तरह आत्मीयता से, प्रेम से बातें कीं तो अपने आप एकवचन निकल गया था। भला आदमी, यह वन-विभाग में अधिकारी था। रिश्वत लेने की उड़ती खबर के बावजूद उसके भोलेपन, अनजान विषय को किसी भी तरह बोलनेवाली चतुराई के कारण मुझे कई बार आश्चर्य हुआ था।
मैंने कहा, ‘‘उस दिन मैं दफ़्तर से जल्दी आया। दिन भर फ़ाइलों, तंग करनेवाले कर्मचारियों के ‘कन्फ्यूज़न्स’। बड़े बाबू चेन्नप्पा के अजीब-सी शंकाओं के कारण सर चकरा-सा गया था। इन सबसे अधिक जनता की उद्दंडता, अपनेक्षित समाचार सुनकर सन्देह से आकर उठानेवाली बातें; रिश्वत देने के लिए घुमा-फिराकर करनेवाली बातें कभी...कभी हँसी आती है।...उस दिन जल्दी आया। फाटक के पास आते ही चीख सुनाई पड़ी। सरोजा की आवाज थी। चौंककर भागा, दरवाज़ा खटखटाया; रोने की ऊँची आवाज सुनाई पड़ी, जलने की बू आ रही थी। ज़ोर से दरवाज़े पर लात मार दी। अन्दर कुंडी लगायी नहीं गयी थी। कपड़े के साथ जल गयी थी वह; पड़ोसियों को पुकारा मैंने, नौकरानी भागकर आयी। दूसरी ओर से मणि आये। अस्पताल पहुँचने से पहले ही साँस निकल गयी थी। परन्तु बेटी शान्ति को फ़ोन किया। अघटित चुका था। याद नहीं कि बेटी को किन शब्दों में समझाया मैंने।’’

उस समय नागराज के साथ चार लोग बैठे थे। उनमें एक गोपाल था, जो कॉलेज में मेरे साथ नाटक खेला करता था। अब किसी कम्पनी में डिजाइनर है। दूसरे मेरे दफ्तर का केस वर्कर रामय्या था। तीसरी टाइपिस्ट मीरा थीं। उसके साथ जो दूसरी महिला थी, उसे मैं नहीं जानता था।
‘‘यह पद्मा है सर। चेन्नपट्ठण के हाई स्कूल में टीचर हैं।’’
‘‘कौन-सा विषय पढ़ाती हैं आप ?’’

‘‘कन्नड़ और अंग्रेजी सर।’’
लगता था कि पत्नी की मौत से वह भी दुःखी है। देखने में इतनी अच्छी लड़की, मुँह लटकाकर ऐसी बैठी थी, मानो मेरी अनिष्टता का बोझ ढो रही हो; देखकर मुझे हँसी आयी। फिर उसका चेहरा देखा। मेरी और देख रही थी; आँखें फेरकर ज़मीन में गाड़ दी। लगता था कि उसकी आंखें भर आयी थीं। वह अजीब-सी लगने लगी। मुझे मालूम था कि वह किसी काम से आयी थी, तबादला हो या कोई शिकायत। जुबान पर आये सवाल को ऐसे ही दबा लिया मैंने। मीरा मेरी सरोज के बारे में बातें कर रही थी।

नागराज के जाने के लक्षण दिखाई नहीं पड़े। पद्मा ने भी अपने तबादले या किसी शिकायत का विचार नहीं उठाया।
मेरी दुःखभरी कहानी सुनकर बड़े बाबू ने मुझे बुलाया। छुट्टी पर था, फिर भी मैं गया। ‘‘अरे बसु जी ऐसी एक ट्रेजडी हो गयी है तो क्या मुझे बताना चाहिए था ? फिलहाल पोस्टमार्टम जैसी झंझटें तो आसानी से खत्म हो गयीं न ? आपकी बेटी को बड़ा दुःख हुआ होगा। क्या हुआ ? सच-सच बताइये, जब आपने देखा तो साँस चल रही थी ?’’
‘‘साँस थी, मुझे देखती ही रही; सारा बदन जल गया था। इस आशा से अस्पताल ले गये कि वह बच सकती है। लेकिन रास्ते में ही चल बसी।’’

‘‘खाना पकाते समय आग लगी होगी; है न ?’’
‘‘मैंने कहा, ‘‘जी हाँ, चपाती तवे पर ही थी—गैस जल रही थी।’’
बौना आदमी चेन्नपपा ने कहा, ‘‘देखिए, बड़ा कठिन है। दो साल में दो बर्निंग केस हमारे दफ्तर से सम्बन्धित हो गये। उस सेल्विया के परिवार की कोई खबर ?’’
‘‘कुछ भी मालूम नहीं है सर !’’ मैंने कहा।

उस दिन सवेरे जल्दी जाग गया। मार्च महीने की साफ-सुथरी सुबह। अभी-अभी सूरज निकला था। जाड़े के साथ गुजरा हुआ कुहासा आसमान के छोर पर अपनी गुंगराली पहचान छोड़ गया था। अख़बार भी याद नहीं आये। घर के सामनेवाले बगीचे में टहलने लगा। पिछले सप्ताह भर की घटनाएँ धीरे-धीरे याद आने लगीं। बेटी शान्ति अपने ससुराल मैसूर चली गयी थी। उसने एक बार भी नहीं पूछा कि सरोजा के साथ क्या हुआ। उससे कुछ आतंक तो भर गया था, पर उतनी किरकिरी नहीं हुई। किन्तु सभी परिचित लोगों ने मेरे दर्द के बारे में पूछकर, दुःख प्रकट करके मुझमें अजीब-सी खटक भर दिया था। मुझसे अधिक भय मेरी दुर्घटना सुननेवालों में ही देखकर मेरी जुबान ढीली पड़ गयी। जिस दिन आग लगी, उस दिन सुबह की सारी बातें मैंने सरोज को बता दी। न जान क्यों, उस दिन सरोज ने हमारे परिवार को याद कर लिया था। शान्ति जब बच्ची थी तो पौधों को पानी देती थी। छोटे-से किराये के मकान में रहते थे, जहाँ ठीक तरह से पानी भी नहीं मिलता था। हर महीने बीस तारीख के बाद चाय के लिए छुट्टे भी नहीं होते थे—सब याद करके हँस पड़ी थी। कह रही थी कि इस बार छुट्टियों में हम दोनों शान्ति को लेकर कम से कम श्रीरंगपट्टणम के पास रंगनतिट्टू चलें। ये सारी बातें सांत्वना प्रकट करनेवालों से मैंने कह दी थीं। कहते-कहते सरोज ने क्या कहा था, मैं कल्पना से क्या कह रहा हूँ—सारी बातें भूलकर कहता ही रहा। सुननेवालों का मन और पिघल गया। जो मैंने कहा था, उसमें झूठ कुछ भी नहीं था, सब कुछ विचार मेरे परिवार के हाल से मिलता-जुलता था।

मेरे सहयोगी, जो मेरे साथ शिक्षा विभाग में धारवाड़, रायचूर आदि शहरों में काम किया था—वे सब आ गये। उनमें मुझे देखने का अवसर, पुरानी बातें याद करने की आशा, बड़े बाबू होने के कारण मुझे में अच्छी भावना पैदा करने की लालसा इत्यादि सब थीं। उनके साथ मेरी सरोजा के सारे अच्छे गुणों के बारे में चर्चा की। बीस वर्ष के हारे जीवन में वह मेरे मन को कैसे सुधार लेती थी हम दोनों का जीवन एक-दूसरे पर कैसे निर्भर करता था—आदि का मैंने वर्णन किया। धारवाड़ का पासवाले अमीर खानदान की निष्ठुरता, प्रामाणिकता, मानवता आदि सबके बारे में मैंने बताया।
यह जानने की चिन्ता नहीं की कि ऐसा क्यों कह रहा था तसल्ली मिली; इस तसल्ली से हँसी आयी थी, व्यंग भी।
सूरज तेज हो रहा था। दूर रास्ते में एक सुन्दर स्त्री आती हुई दिखाई दी। कुछ ही देर में पता चला कि वह टीचर पद्मा है, जो हमारी टाइपिस्ट मीरा के साथ आयी थी। उसका चलना मैंने नहीं देखा था। सोचा कि स्त्री का आधा सौंदर्य तो उसकी चाल में है। देखा कि उसकी ‘चाल-चलन में’ कहने की उम्र तो नहीं है। नजदीक आ गयी थी। यह सोचकर कि वह कहीं जा रही होगी मैं दूसरी ओर देखने लगा। लेकिन पद्मा ‘नमस्ते सर’ कहती हुई फाटक खोलकर अन्दर आयी। सुबह की चमक में उसका चेहरा गम्भीर और सुन्दर था। उसका शरीर सन्तोष छलका रहा था, मानो अभी-अभी नहाकर आयी हो। उसका मन प्रशान्त था।

‘‘नमस्ते, आइये। क्या बात है ?’’ मैंने कह तो दिया, लेकिन मेरा मन चेतावनी देने लगा कि वह आज निश्चय ही अपना तबादला या तरक्की का विषय लेकर ही आयी है।
उसने कहा, ‘‘मेरी माँ आपकी वाइफ़ को जानती थी सर, सरोज के बारे में बहुत कुछ कह रही थीं। आपको और एक बार देखने की इच्छा हुई, चली आयी। आपको तकलीफ तो नहीं हुई ?’’
उसकी बातों से मन में सन्देह रख लेना घटियापन लगा सो मैंने कहा, ‘‘आप तबादला जैसे किसी उद्देश्य से तो नहीं आयी हैं न ?’’
उसने सर हिलाकर नकार दिया।
उतने में हम अन्दर आये। पद्मा की गम्भीरता, हमदर्दी देखकर मैं पिघल गया। ‘‘क्या मैं आपके लिए कॉफी बना सकती हूँ ? आपकी नौकरानी अभी आयी नहीं है न ?’’ कहती हुई कॉफ़ी बनाने को उद्यत हो गयी तो मना नहीं कर सका मैं। उसी को देखता रह गया मैं।
‘‘पद्मा, मैं बातें करता ही रहता हूँ, ऊब गयी तो बता देना।’’ धीमी आवाज़ में कहा मैंने।
‘‘क्या कहा आपने ?’’

मैंने कहा, ‘‘कुछ नहीं; आओ पद्मा। कॉफ़ी मत बनाना, बहुत दिन हो गये हैं, बाहर निकलता ही नहीं मैं। आनेवालों के साथ बातें ही हो गयी हैं। आज मेरी गाड़ी में घूमने चलेंगे।’’
पद्मा ने मना नहीं किया। क्या मैंने इसमें विश्वास भर दिया है ? या मेरे दुःख के अध्याय ने इसमें मेरे बारे में सहानुभूति के साथ विश्वास भी भर दिया है ? यह किस प्रकार की लड़की है ? टाइपिस्ट मीरा के साथ आयी यह लड़की द्वारा अब अकेली आकर तसल्ली देने, हमदर्दी दिखाने का कारण किस प्रकार का कुतूहल होगा ?
‘‘पद्मा, मेरी बेटी शान्ति अपनी माँ के निधन के बाद यहाँ आकर पाँच दिन रह गयी थी। एक दिन भी ज्यादा बात नहीं की। उसने मेरी आलोचना की होती, कम से कम वह जो जानती थी, उन बातों के आधार पर मुझे कोसती तो मुझे सुकून मिलता।’’ मेरी बातें सुनती हुई पद्मा ने मेरी ओर देखा। अपनी कल्पना के परे अपना सामना जो कर रहा होगा, उसने उसमें आतंक भर दिया होगा, चौंकाया होगा। इस लिए अनावश्यक उसको न मिलनेवाले विषय के बारे में बोलने लगा।
‘‘मेरे और सरोज का जीवन सबकी तरह आम था। लेकिन सरोज एक अजीब-सी गम्भीरतावाली लड़की थी। मैं बच्चों जैसी हरकतें करता था। जब नयी-नयी शादी हुई थी उसके सामने मैं उछल-कूद करता था। प्रेम की तुलना में ब्याह की निरर्थकता, मन के उचाट के बारे में बोलने लगा।

इससे वह अपसेट नहीं हो रही थी, संयम की मीठी मुस्कान बिखेरकर चुप हो जाती। उसकी हँसी में मेरे परिवार की गम्भीरता, गहरा प्रेम देखकर मुझे गर्व होता था। तब मेरा वेतन मात्र ढाई सौ रुपये था। शान्ति के जन्म पर कितनी खुश हुई थी वह ! वह स्कूल में भर्ती हो गयी। छोटी-सी लड़की, हमारी दृष्टि में विश्व-सुन्दरी, सबसे अच्छी लड़की थी वह। एक दिन वह दौड़ की प्रतियोगिता में भाग लेने का बात कहकर ज़िद करने लगी कि हम दोनों भी स्कूल चलें। उसकी बातों पर हम यह सोचकर गये कि वह जीत जाएगी। वह दौड़ में आख़िरी थी। मैंने दर्द भरी हँसी हँसकर जीवन के वास्तव के बारे में, संसार भर के माता-पिताओं के बारे में सोचा.....।’’
‘‘यह सब क्यों सुना रहे हैं आप ?’’ मेरी बातों को पसन्द करती हुई पद्मा ने मज़ाक से पूछा। हम बंगलौर के दो बगीचे घूमकर एक रेस्तराँ में कॉफ़ी पीने बैठे थे। पद्मा मेरे मन को हल्का करके सामने बैठकर बच्ची की तरह सुन रही थी। आँखें खुली की खुली रखकर बातें सुन रही थी। अपने दिल में भरी भावनाओं को छुपाए बिना उसने कहा, ‘‘कहिए, सब कुछ कह डालिये।’’

‘‘मनुष्य मूलतः नीचे है।’’ बात शुरू करते ही पद्मा ने टोका, ‘‘क्या उसमें स्त्रियाँ भी शामिल हैं ?’’ सोचा कि चाहे वह कुछ भी समझ ले, उसके कोमल मन को ठेस पहुँचाना नहीं चाहिए। हँसकर कहने लगा, ‘‘हमारे बच्चे दूसरों के बच्चों से श्रेष्ठ नहीं हैं। हमारा परिवार दूसरों के परिवार से श्रेष्ठ नहीं है—यह बात हम में से कोई नहीं मानता। किसी न किसी प्रकार की श्रेष्ठता के लिए हम प्रयत्न करते ही रहते हैं। इस श्रेष्ठता को अपने पापों से भी देखने का प्रयत्न करते हैं। अपनी जवानी के उत्साह में एक दिन मैं एक विचित्र क्लब में गया। उस अनुभव के लिए मेरी प्यास ही कारण थी। जीता, फिर हारा; घर पहुँचने पर क्लब में जो कुछ हुआ था, उसके बारे में सरोज से कहना सम्भव न था। कहा होता तो उसे नरम बनाकर कहता, इसलिए नहीं कहा। मेरे इस रहस्य से कोई ख़तरा तो नहीं हुआ परिवार उसी सहज रीति से चल रहा था। उतने में मैं अपनी लालसा के अधीन हो रहा था। भोली-भाली लड़की थी, परसों मीरा के साथ तुम्हें देखते ही उसकी याद आयी। वह एक छोटे से काम के लिए आयी थी। उसका नाम पूछा। उसको ब्लैकमेल करनेवालों के नाम पूछे। इन सबको काबू में रखकर उसका तबादला करवाने का आश्वासन दिया। वह ख़ुशी से चली गयी। लेकिन पद्मा, मनुष्य कितना नीच है ! वह आश्वासन, आश्वासन बनकर ही रह गया।

उसका तबादला नहीं हुआ। ब्लैकमेल करने वालों से छुटकारा नहीं मिला। वह मुझे मालूम था। मैं जानता था कि वह फिर आयेगी; आयी भी। उसके आते ही उसके कहने से पहले ही मैंने अपने संकटों के बारे में कहा। कहा कि उस बिगड़ी हुई, सड़ी व्यवस्था में एक भी अच्छा काम करना कितना कठिन है। मेरे कहने के इस अन्दाज़ से ही सेल्विया का मन आकर्षित हो गया था, दुष्ट जानवरों के कारण उसका विचलित मन सुकून पा चुका था। जाल में फँसा जीव मेरे जाल में फँस रहा था। सेल्विया मेरी हो गयी थी। उसके मृदुमनोहर शरीर को मैंने सुख दिया; उसका तबादला हो गया। तक़लीफ पहुँचानेवालों से छुटकारा मिल गया। इसी नाजुक परिस्थिति ने ही मुझमें व्यंग, भय पैदा किया।




प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai